Thursday, June 12, 2008

Poem from my heart

भोर भये एक अंग्राई लेके पलकों का झपकना ,
और उषा की पहली किरण जब बाघा बीच की लहरों को चूमती है
मन बस ऐसे ही अद्वालित हो उठता है
क्या यही स्वर्ग का एक झलक तो नहीं ..............

एक कण नहीं धुआं का अनिल के झोकों में
एक छाया भी न मिलता कालिमा की सलिल (पानी) में
मायानगरी की वो काली कलूटी दुर्वाषित झपटे
और कहाँ यह नयनाभिराम सुरभ्य जल्सुसुन्दारी
बोलो कहीं ये स्वर्ग तो नहीं ....

न नब्चुम्भी अत्त्लिकाएं ..न ट्रैफिक लैटेस ...न ट्रेन बसों की चीखें
फिर भी विकास क्या होता है कोई आ इनसे सीखें
बरिस्ता में बैठकर काफी की वे चुस्की
और अधर में रहती है समय्हिनता की वो सिसकी
कौन कहता है की मुम्बई में रहते है लोग जीके
रईसी क्या होता है कोई यहाँ आके सीखे
चाह के न ठहर पाए ...जा के ना भूल पाए
कोशिश करने की कोई हद बाकी है ही नहीं
बोलो कहीं यही स्वर्ग तो नहीं .......